यूँ ही कभी , खामोश सी शामो में छत पर बैठ जाता हु। सामने मीलो तक फैले शहर को अपनी आँखों के आगे सिमटे देख सोचता हु की कही कोई किसी कोने में इसी तरह अपने मासूम खयालो में खोया बैठा हो। दिन भर के उस शोर से परे इस सन्नाटे में शायद सुकून इसलिए पा जाता हु क्युकी इस वीराने में अपने अंदर मच रहे शोर को सुन पाने में सक्षम होता हु। तारो की चादर ओढ़े, खुले आसमान में कही खुद का वजूद तलाशता हु। शायद कुछ सवालो के जवाब नहीं होते, शायद ज़िन्दगी भी एक ऐसी ही अनसुलझी पहेली है। शायद दिन भर समझदारी की चादर ओढ़े ये नासमझ मन घुट सा जाता है। बस यूँ ही कभी सोचता हु , की तमाम उम्र जिन बातो पर , जिन लोगो पर, जिन भावनाओ पर, समय व्यर्थ किया , क्या उन से पृथक रह जीता तो कुछ अलग होता? यूँ ही कभी सोचता हु , की एक सवालो का जाल है ये जीवन। एक मकड़ी के जाले के समान , जितना इससे बहार निकलने की कोशिश करू , उतना ही जाल में फसता जाता हूँ। शायद कोशिश करना निरर्थक है, शायद सवालो के साथ जीना सीख लेना ही समझदारी है। यूँ ही कभी सोचता हु जब ख़ामोशी में तनहा बैठ अपने अंदर के शोर को सुनता हु। यूँ ही कभी.…
Brilliant meri jaan! Bas chhat (roof) pe ek hi kami hai - ek-do bottle beer ki!
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