लाइसेंस है तो पहचान पत्र और पैन कार्ड की क्या ज़रूरत। पुराने कॉलेज का आइडेंटिटी कार्ड भी संभाल कर रख देना चाहिए। ठीक बात है की किसी काम का नहीं, लेकिन याद समझ कर ही अपने पास रखा है।
सभी सामान अलग कर लिया तो अलमारी में रखा वो पुराना बक्सा ढूंढने लगा, जिसमे पुराना बटुआ आज भी संभाल कर रखा है। उसके साथ कुछ कागज़ हैं , जिन्हे गौर से देखने का कभी समय नहीं मिला। आज जब फिर से खोला तो सोचा एक बार देखा जाये की कौनसे ज़माने की कोई याद यहाँ महीनो से दम तोड़ रही है।
सबसे पहले एक रेस्त्रां का कार्ड नज़र आया। जी नहीं, किसी पांच सितारा रेस्त्रां का नहीं , बल्कि राजस्थान के एक छोटे से शहर नवलगढ़ में स्थित गणपति फ़ूड कोर्ट का कार्ड था। उसे देखते ही सालो पुरानी कुछ यादे जैसे ज़हन के किसी कोने में फिर से ज़िंदा हो उठी।
जब नया नया राजस्थान में रहने गया था तो दिल्ली का स्वादिष्ट खाना खूब याद आता था। 2012 की बात है , तीन साल हो गए। पर आज भी याद है की उस गणपति रेस्त्रां को ढूंढने के बाद ऐसा लगा था जैसे खुद भगवन गणेश ही मिल गए हो। अगले दो साल में नजाने कितनी बार वहां के भोजन का आनंद उठाया। मालिक और उसके बेटे का चेहरा भी और शाम को रहने वाली वहां की हवा की महक भी, सब आज तक अच्छे से याद है।
बटुए को और टटोला तो कागज़ के कुछ टुकड़े और मिले। गाओ में ख़रीदा 700 रूपए के फ़ोन का बिल और पहले स्कूल के हेडमास्टर का लिखा हुआ एक पर्चा। कुछ ख़ास मायने नहीं रखता सब, पर फिर भी ख़ास तो है। सब कुछ संभाल कर रखना अच्छा लगता है , यादें जमा करना अच्छा लगता है।
अलमारी का एक बड़ा हिस्सा है जिसमे किताबो के साथ यही सब सामान पड़ा है। दोस्तों के साथ पहली चिड़ियाघर की सैर के समय खरीदी टिकेट या स्कूल के आखिरी दिन रंग बिरंगे पेन से लिखी गयी शर्ट। शायद अब देखू तो पुराने सन्देश पढ़ कर हसी आये , पर फिर से पुराने दिनों से जुड़ना भी तो एक अद्भुत अनुभव है।
किसी दिन जब फिर से फुर्सत मिले तो सब उठा कर देखेंगे। आज दो साल पहले लिखी खुद की एक बात याद आई "मौका मिला तो फिर से उन सभी रास्तो से गुज़रना पसंद करूँगा जिनसे पहले गुज़र चूका हु, इस तरह हो सके तो एक ज़िन्दगी दो बार जी सकूं।"