ठीक से याद नहीं | शायद दसवीं क्लास की बात है | एग्जाम नज़दीक थे इसीलिए ट्यूशन वाले भैया छुट्टी के दिन भी सुबह सुबह क्लास में बुलाया करते थे | सर्दी के दिन थे, सुबह 6 बजे सड़क पर निकलते थे घर से कुछ दूर पैदल चल कर इंस्टिट्यूट पहुंचने के लिए | दिन का वो समय हुआ करता था जब रात का कुछ बचा कूचा अँधेरा सुबह की ताज़ा रौशनी के आने से धीरे धीरे छटता जाता है | पहली सड़क पार करने के बाद थोड़ा आगे ही एक चाय की दुकान हुआ करती थी | FM पर चल रहे किशोर कुमार और लता मंगेशकर के गाने और चिड़ियों की चहचहाहट, बस यही आवाज़ और इक्का दुक्का गाड़िया | टपरी पर कुछ लोग भी हुआ करते थे पर कोई शोर गुल नहीं, शायद दिन भर के तनाव के लिए खुद को तैयार करते होंगे |
उस समय पुराने गाने सुनना अच्छा नहीं लगता था, आज लगता है | चिड़िया बहुत हुआ करती थी बचपन में, गर्मी के दिनों में छल्ली के दाने दाल कर उन्हें चुगते हुए देखने का मज़ा ही कुछ और था | आजकल नहीं दिखती और अच्छा ही है आजकल कौन धुप में घंटो बैठकर आराम किया करता है?
खैर तो बात करते हैं चाय की टपरी की | कॉलेज तक आते आते कभी किसी टपरी पर बैठकर चाय की चुस्कियां लेने का मज़ा नहीं उठाया | और ना ही कॉलेज में कुछ ऐसा अनुभव रहा | हाँ कभी कैंटीन में बैठकर दोस्तों के साथ समोसे कहते हुए या किसी यात्रा पर maggi के साथ पर चाय का असली मज़ा पहली बार कॉलेज के बाद ही लिया |
2012 की गर्मियां थी जब एक बस्ता उठा कर राजस्थान चल पड़ा दो साल के लिए | NGO में फ़ेलोशिप का मौका मिला था और गाँव में रहने का भी | शुरुआत में चाय पीने की इतनी आदत नहीं थी, कभी भी किसी स्कूल में जाओ या किसी से मिलो तो वो चाय ज़रूर पिलाता था | मना करने में शर्म आती थी इसीलिए धीरे धीरे पीने की आदत डाल ली | समय बीता और हम दिल्ली वाले से गाँव वाले हो गए, अब चाय हमारी सिगरेट हो गयी थी | दिन में कमसकम एक बार, शाम में चाय की दुकान की हाज़री लग ही जाती थी |
झुंझुनू डिस्ट्रिक्ट के नवलगढ़ शहर में रहा करते थे | छोटा सा शहर है नवलगढ़ और शहर क्या है टाउन ही कह लीजिए | Main सड़क पर एक गोलचक्कर है जिसे सब घूमचक्कर के नाम से जानते हैं | नवलगढ़ को आने वाली और वहा से जाने वाली सभी बसे घूमचक्कर पर रूकती हैं | एक अच्छा खासा बस स्टॉप भी है जो की घूमचक्कर से थोड़ा ही दूर है | उसी सड़क पर | बस स्टॉप से ले कर घूमचक्कर तक चाय की दुकानों की लाइन है | आने जाने वाले सभी लोग वहा रूककर नाश्ता पानी लेते हैं | थोड़े ही समय में ये चाय की दुकाने हमारा शाम का अड्डा बन गयी | दिन भर के काम के बाद मीटिंग खत्म कर के अपनी टीम के दोस्तों के साथ वही बैठ कर नाजाने कितने प्लान बनाए, कितने सपने देखे |
चाय के साथ समोसा भी ज़रूर लिया करते थे | सात लोग थे टीम में जो धीरे धीरे कम भी होते गए | पर हमारा चाय की टपरी पर जाना कम नहीं हुआ | खैर समोसे के बात करे तो एक बार राजस्थान में नवलगढ़ के समोसे तो ज़रूर खाये | कटोरी में समोसा, कढ़ी, चना और दही डाल कर जैसे ही सामने आता था सच में मुंह में पानी आ जाता था | जब भी रात में घर के लिए दिल्ली की बस पकड़ने को जाता था तो उसी चाय की टपरी बार बैठ कर इंतज़ार किया करता था | सात या आठ बजे के बाद ही सड़क खली होने लगती थी और मानो नवलगढ़ जैसे थम सा जाता था | सभी चाय वाले जानने भी लगे थे | छोटे शहरों में रहने वाली से सबसे ख़ूबसूरत बात है | कुछ महीनो में ही वो जगह मानो आपको अपना सा बन लेती है और आप पूरी तरह से उसके हो जाते हैं |
राजस्थान में रहते हुए समझ में आया की चाय की टपरी का क्या महत्व है | आखरी बार जब उस शहर से निकले तब भी चाय पीते हुए ही निकले | किसी भी मीटिंग या सेमिनार से ज़्यादा खुल कर जो दिल की बाते हुई, वो चाय की टपरी पर ही हुई | जब वहा से वापस दिल्ली आये तो सबसे ज़्यादा कमी शाम में महसूस हुई | खैर कुछ महीने बाद फिर बहार जाने का मौका मिला और इस बार जगह थी ओडिशा का ढेंकनाल शहर |
अब की बार हॉस्टल में रहने गए थे तो माहौल भी अलग था और लोग भी | पांच नहीं पचास | पचास से ज़्यादा लोग एक ही साथ रहा करते थे | सुबह और शाम को हॉस्टल के मेस में बानी नाना और लूलू की शक्कर वाली चाय से भी किसी को परहेज़ नहीं हुआ करता था | बाजार भी जाया करते थे और ज़ाहिर से बात है की चाय की टपरी पर भी समय बीतता था | सर्दी के दिनों में पकोड़े, ओडिशा के स्पेशल आलू चॉप के साथ बस स्टैंड पर सब दीखते थे हाथ में चाय का कप लिए | हॉस्टल की बाते वहा हुआ करती थी | आखिरी समय नज़दीक आते आते जॉब की और करियर की बाते भी वही होने लगी | कही ना कही शायद सबको मालूम हो गया था की अब ज़िन्दगी में बहुत कुछ बदलने वाला था | हमे भी मालूम था की दिल्ली का कर एक बार भी चाय की टपरी और हमारी दोस्ती में थोड़ी दूरी आने वाली थी |
अभी भी ऑफिस से निकल कर पी लिया करते हैं | कोई पुराने दोस्त जो गाँव में या हॉस्टल में साथ रहा, उससे मिलते हैं तो टपरी पर ज़रूर जाते हैं | आज भी गए थे, अकेले | खुद से बाते करते | आगे भी जाते रहेंगे |
उस समय पुराने गाने सुनना अच्छा नहीं लगता था, आज लगता है | चिड़िया बहुत हुआ करती थी बचपन में, गर्मी के दिनों में छल्ली के दाने दाल कर उन्हें चुगते हुए देखने का मज़ा ही कुछ और था | आजकल नहीं दिखती और अच्छा ही है आजकल कौन धुप में घंटो बैठकर आराम किया करता है?
खैर तो बात करते हैं चाय की टपरी की | कॉलेज तक आते आते कभी किसी टपरी पर बैठकर चाय की चुस्कियां लेने का मज़ा नहीं उठाया | और ना ही कॉलेज में कुछ ऐसा अनुभव रहा | हाँ कभी कैंटीन में बैठकर दोस्तों के साथ समोसे कहते हुए या किसी यात्रा पर maggi के साथ पर चाय का असली मज़ा पहली बार कॉलेज के बाद ही लिया |
2012 की गर्मियां थी जब एक बस्ता उठा कर राजस्थान चल पड़ा दो साल के लिए | NGO में फ़ेलोशिप का मौका मिला था और गाँव में रहने का भी | शुरुआत में चाय पीने की इतनी आदत नहीं थी, कभी भी किसी स्कूल में जाओ या किसी से मिलो तो वो चाय ज़रूर पिलाता था | मना करने में शर्म आती थी इसीलिए धीरे धीरे पीने की आदत डाल ली | समय बीता और हम दिल्ली वाले से गाँव वाले हो गए, अब चाय हमारी सिगरेट हो गयी थी | दिन में कमसकम एक बार, शाम में चाय की दुकान की हाज़री लग ही जाती थी |
झुंझुनू डिस्ट्रिक्ट के नवलगढ़ शहर में रहा करते थे | छोटा सा शहर है नवलगढ़ और शहर क्या है टाउन ही कह लीजिए | Main सड़क पर एक गोलचक्कर है जिसे सब घूमचक्कर के नाम से जानते हैं | नवलगढ़ को आने वाली और वहा से जाने वाली सभी बसे घूमचक्कर पर रूकती हैं | एक अच्छा खासा बस स्टॉप भी है जो की घूमचक्कर से थोड़ा ही दूर है | उसी सड़क पर | बस स्टॉप से ले कर घूमचक्कर तक चाय की दुकानों की लाइन है | आने जाने वाले सभी लोग वहा रूककर नाश्ता पानी लेते हैं | थोड़े ही समय में ये चाय की दुकाने हमारा शाम का अड्डा बन गयी | दिन भर के काम के बाद मीटिंग खत्म कर के अपनी टीम के दोस्तों के साथ वही बैठ कर नाजाने कितने प्लान बनाए, कितने सपने देखे |
चाय के साथ समोसा भी ज़रूर लिया करते थे | सात लोग थे टीम में जो धीरे धीरे कम भी होते गए | पर हमारा चाय की टपरी पर जाना कम नहीं हुआ | खैर समोसे के बात करे तो एक बार राजस्थान में नवलगढ़ के समोसे तो ज़रूर खाये | कटोरी में समोसा, कढ़ी, चना और दही डाल कर जैसे ही सामने आता था सच में मुंह में पानी आ जाता था | जब भी रात में घर के लिए दिल्ली की बस पकड़ने को जाता था तो उसी चाय की टपरी बार बैठ कर इंतज़ार किया करता था | सात या आठ बजे के बाद ही सड़क खली होने लगती थी और मानो नवलगढ़ जैसे थम सा जाता था | सभी चाय वाले जानने भी लगे थे | छोटे शहरों में रहने वाली से सबसे ख़ूबसूरत बात है | कुछ महीनो में ही वो जगह मानो आपको अपना सा बन लेती है और आप पूरी तरह से उसके हो जाते हैं |
राजस्थान में रहते हुए समझ में आया की चाय की टपरी का क्या महत्व है | आखरी बार जब उस शहर से निकले तब भी चाय पीते हुए ही निकले | किसी भी मीटिंग या सेमिनार से ज़्यादा खुल कर जो दिल की बाते हुई, वो चाय की टपरी पर ही हुई | जब वहा से वापस दिल्ली आये तो सबसे ज़्यादा कमी शाम में महसूस हुई | खैर कुछ महीने बाद फिर बहार जाने का मौका मिला और इस बार जगह थी ओडिशा का ढेंकनाल शहर |
अब की बार हॉस्टल में रहने गए थे तो माहौल भी अलग था और लोग भी | पांच नहीं पचास | पचास से ज़्यादा लोग एक ही साथ रहा करते थे | सुबह और शाम को हॉस्टल के मेस में बानी नाना और लूलू की शक्कर वाली चाय से भी किसी को परहेज़ नहीं हुआ करता था | बाजार भी जाया करते थे और ज़ाहिर से बात है की चाय की टपरी पर भी समय बीतता था | सर्दी के दिनों में पकोड़े, ओडिशा के स्पेशल आलू चॉप के साथ बस स्टैंड पर सब दीखते थे हाथ में चाय का कप लिए | हॉस्टल की बाते वहा हुआ करती थी | आखिरी समय नज़दीक आते आते जॉब की और करियर की बाते भी वही होने लगी | कही ना कही शायद सबको मालूम हो गया था की अब ज़िन्दगी में बहुत कुछ बदलने वाला था | हमे भी मालूम था की दिल्ली का कर एक बार भी चाय की टपरी और हमारी दोस्ती में थोड़ी दूरी आने वाली थी |
अभी भी ऑफिस से निकल कर पी लिया करते हैं | कोई पुराने दोस्त जो गाँव में या हॉस्टल में साथ रहा, उससे मिलते हैं तो टपरी पर ज़रूर जाते हैं | आज भी गए थे, अकेले | खुद से बाते करते | आगे भी जाते रहेंगे |